बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 54)

थोड़ी दूर पर भरा घड़ा मिला। बिल्लेसुर खुश हो गये। घड़ेवाली सगुन की सोचकर मुस्कराई, कहा, "मेरी मिठाई कब ले आते हो ?"


 काम निकलने के बादवाले आशय से सिर हिलाकर आश्वासन देते हुए बिल्लेसुर आगे बढ़े।

नाला मिला। किनारे रियें और बबूल के पेड़। 

खुश्की पकड़े चले जा रहे थे। बनियों के ताल के किनारे से गुजरे।

 देखकर कुछ बगले इस किनारे से उस किनारे उड़ गये। बिल्लेसुर बढ़ते गये। शमशेरगंज का बैरहना मिला।

 एक जगह कुछ खजूर और ताड़ के पेड़ दिखे।

 सामने खेत, हरियाली लहराती हुई। ओस पर सूरज की किरनें पड़ रही थीं।


 आँखों पर तरह-तरह का रङ्ग चढ़ उतर रहा था। दिल में गुदगुदी पैदा हो रही थी। पैर तेज़ उठ रहे थे। 

मालूम भी न हुआ कि हाथ में दूध से भरी भारी हण्डी है।

आम और महुए की कतारें कच्ची सड़क के किनारे पड़ीं। जाड़े की सुहावनी सुनहली धूप छनकर आ रही थी। 

सारी दुनियाँ सोने की मालूम दी। ग़रीबीवाला रंग उड़ गया। छोटे-बड़े हर पेड़ पर पड़ा मौसिम का असर उनमें भी आ गया।

 अनुकूल हवा से तने पाल की तरह अपने लक्ष्य पर चलते गये। इस व्ययसाय में उन्हें फ़ायदा-ही-फ़ायदा है, निश्चय बँधा रहा। 

चारों ओर हरियाली। 

जितनी दूर निगाह जाती थी, हवा से लहराती तरङ्गें ही दिखती थीं; उनके साथ दिल मिल जाता और उन्हीं की तरह लहराने लगता था।

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